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कोल्हापुर की मेरी यात्रा एक आकस्मिक यात्रा थी। मैं काफी लंबे समय से घर पर था और इसी कारण से मन, जल बिन मछली की की तरह तड़प रहा था कि कहीं बाहर घूमकर आया जाए, उस पर यह मुंबई का सुहाना मानसून खूब चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था भाई निकल ले घर से !, इन सब विचारों के बीच में मन में वो मनोज कुमार की फिल्म के गाने की भी याद आ गयी ,तेरी दो टकया दी नौकरी मेरा लाखो का सावन जाये.मैंने तुरंत अपनी पत्नी को ऑफिस से कॉल किया और उससे कहा “भाग्यवान फटाफट कुछ कपड़ों के साथ बैग में ठूस लो क्योंकि हम आज रात कोल्हापुर के लिए निकल रहे हैं”। मेरी पत्नी बोली, कोल्हापुर उधर क्यो !। मैंने जवाब दिया, “अरे तू कपडे पैक कर ना “। इस बार उसकी ओर से कोई और विरोध नहीं हुआ, शायद इसलिए कि जब भी यात्रा करने की बात आती है तो वह मेरे अनिश्चित व्यवहार के लिए अभ्यस्त हो चुकी है। (भगवान का शुक्र है कि मैं ऐसा समझदार साथी पाकर धन्य हूं, वर्ना आपुन तो गया था ।).
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मैं शाम 7 बजे के आसपास घर पहुंचा, इस बीच, मैंने देखा कि कोल्हापुर के लिए कोई ट्रेन उपलब्ध है या नहीं, लेकिन अंतिम क्षण होने के कारण सीटों की उपलब्धता नहीं थी। इसके बाद,मैंने बस बुकिंग के लिए जाँच की, सौभाग्य से सीटें उपलब्ध थीं और मैंने जल्दी से दो लोअर बर्थ स्लीपर बुक कर लिए।
हमारी बस रात 10.30 बजे अंधेरी से निकली और हम सुबह 8 बजे कोल्हापुर पहुंचे। हमने एक होटल में चेक इन किया जो बस स्टैंड के करीब ही था। बस डिपो के करीब होटल लेने का सब से बड़ा कारण ये था कि हमने कुछ स्थानों पर जाने की योजना बनाई थी जिसके लिए हमें बस लेनी पड़नी थी, इसलिए बस स्टैंड से निकटता हमें समय बचाने और तेजी से यात्रा करने में मदद करेगी।
बॉस ट्रेवल में बहुत दिमाग लगाना पड़ता है। दिमाग की बत्ती हमेशा ही ON पर रहना मांगता है.
हमने अपने होटल में चेक इन करने के बाद पास के एक रेस्तरां में नाश्ता किया और लगभग 10. बजे हम कोल्हापुर बस स्टैंड पर पहुँच गए थे। हमारी पहले दिन की योजना गगनगढ़ किले की यात्रा करने की थी। हमने पूछताछ काउंटर पर पूछा कि बस कितने बजे आएगी और किस प्लेटफॉर्म से चलेगी। हमें काउंटर वाले व्यक्ति ने इशारा करते हुए सामंने लगी बस में बैठने के लिए कहा ,जो वास्तव में विजयदुर्ग जा रही थी लेकिन उसने हमको समझाते हुए बताया की यह बस विजयदुर्ग गगन बावड़ा से होकर जाती हैं । मैं और मेरी पत्नी हम दोनों बस में सवार हो गये और हमें एक खिड़की वाली सीट मिली जो मेरे लिए एक बड़ा बोनस था । पूरा पैसा वसूल अगर खिड़की वाली सीट मिल जाये।
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जल्द ही हमारी बस, कोल्हापुर बस डिपो से निकल गई और शहर की तंग भीड़भाड़ वाली सड़कों से हाईवे की ओर चल पड़ी । रास्ता बहुत ही सुंदर था और पूरे रास्ते बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। सच पूछो महाराष्ट्र बारिशो में स्वर्ग समान लगता हैं। बस की खिड़की के बाहर के नज़ारे जैसे कि खुले मैदान ,हरी-भरे खेत , नदियाँ आदि मन को मंत्रमुग्ध कर रहे था।
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हमारी बस कई गाँवों से होकर गुज़रती चली जा रही थी। बस की यात्रा मुझे हमेशा एक अलग अंदाज़ में आकर्षित करती है, क्योंकि बस यात्रा में हमे विभिन्न संस्कृति के लोग मिलते हैं ,हमारे पास ही की सीटों सरकारी कर्मचारी हँस खेल रहे थे और तरह -२ के चुटकुले सुना कर ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगा रहे थे। वे सभी बहुत खुश और बेफिक्र लग रहे थे। मैंने ऐसे ही एक ग्रुप में बैठे हुए सज्जन से अनुरोध किया कि भाई साहेब गगन बावड़ा का स्टॉप आने पर मुझे सूचित कर दे।
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करीब-२ , डेढ़ घंटे की यात्रा के बाद, जिस व्यक्ति को मुझे मेरे बस स्टॉप के बारे में सूचित करना था, वह नीचे उतरने के लिए खड़ा हो गया। यह देखकर मैं थोड़ा घबरा गया मन विचार आया “अरे भाई अगर तुम नीचे उतर गये तो मेरे को स्टॉप कौन बतायेगा”, मेरे हैरान -परेशान भाव देखकर वह मेरी चिंता को समझ गया होगा, क्योकि उसने मुझे देखकर मुस्कुराते हुए शुद्ध मराठी में कहा ” पुडचा स्टॉप तुम्चा आहे । (अगला पड़ाव आपका है) मैंने राहत की सांस ली। हमारी बस आगे बढ़ी और कुछ ही मिनटों में सड़क से निकल कर एक बस डिपो में घुस गई। बस कंडक्टर ने घोषणा की कि वे 10 मिनट का ब्रेक ले रहे हैं।मुझे लगा क्या यार अभी अगला स्टॉप अपना ही था और इसने ब्रेक ले लिया।। टाइम ख़राब होता है ना।अधिकांश यात्री नीचे उतर गए और बस में हम दोनों ही सवार थे। बाहर बहुत तेज़ बारिश हो रही थी और कम दृश्यता के कारण हम शायद ही कुछ देख पाते थे।
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हमने बस के अंदर बैठने और बारिश रुकने तक इंतजार करने का फैसला किया। जैसे-जैसे दृश्यता में सुधार हुआ, बाहर का दृश्य थोड़े अच्छे से दिखने लगे । हमारे चारों ओर धुंध के साथ दिखने वाले नज़ारे बहुत ही अद्भुत लग रहे थे। हमने नीचे उतरकर कुछ फोटो क्लिक किये और जैसे ही फिर से बूंदा बांदी शुरू हुई मैं और मेरी पत्नी जल्दी से फिर से बस में जाकर अपनी सीट पर बैठ गये। कुछ ही देर में अन्य यात्री भी वापस आकर अपनी सीट लेने लगे। अंत में चालक और परिचालक भी बस में सवार हो गए।
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मैंने परिचालक से पूछा कि क्या उन्होंने लंच के लिए ब्रेक लिया था । उसने कहा, “नहीं, हमने ब्रेक इसलिए लिया क्योंकि अब यहाँ से घाट की चढाई शुरु होती है और वह काफी लंबे समय तक रहेगी , वहां ब्रेक लेना मुमकिन नहीं होता ” फिर मैंने परिचालक से पूछा कि गगन बावड़ा यहाँ से कितनी दूर है, और उसने मराठी में जवाब देते हुए कहा , ” आता जो स्टॉप गेला तोच गगनबावडाचा बस स्टॉप होता ” (अभी जो गया वह गगन बावड़ा बस स्टॉप ही था) मैं चौंक गया और जल्दी से अपनी सीट से कूद कर ड्राइवर की ओर भागा और बस को रोकने के लिए ड्राइवर को बोला । बुदबुदाते हुए मूर्खों की तरह, हम दोनों बस से उतर गए और वापस बस स्टॉप की ओर चल पड़े। दो बेचारे बिना सहारे -देखो पूछ-पूछ कर हारे….👫 यह हम दोनों का हाल था
बस स्टॉप पर पहुंचने पर, हमने दुकानदार से गगनगढ़ किले तक कहां से और कैसे जा सकते हैं इस की जानकारी ली । उन्होंने कमान या प्रवेश द्वार की ओर इशारा किया जिसे बस स्टॉप से ही देखा जा सकता है और हमें वहां जाने के लिए कहा और ऊपर की ओर जाने वाली सड़क का रास्ता लेने का सुझाव दिया । हमें बताया गया करीब-२ दो किलोमीटर का रास्ता होगा। मैंने पूछा कोई ऑटो रिक्शा मिल सकता है क्या , उन्होंने कहा की आज बारिश होने के कारण यात्री कम हैं तो कोई ऑटो वाला मिलना मुश्किल होगा, यह सुनते ही बिना कुछ सोचे-समझे हम दोनों ने गगनगढ़ किले की और चलना शुरू कर दिया।। गगनगढ़ किले तक जाने वाली सड़क पूरी तरह से पक्की सड़क है, इसलिए यदि आपके पास अपना वाहन है तो आप सीधे गेट तक जा सकते हैं। जहां तक हमारा संबंध था जैसा कि मैंने पहले भी कहा था दो बेचारे बिना सहारे -२ देखो पूछ-पूछ कर हारे….👫 तो यह दो बेचारे पैदल पैदल निकल पड़े।
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सच कहूं तो यह छोटा सा ट्रेक हम दोनों के लिए एक वरदान साबित हुआ क्योंकि जब हम चल रहे थे तो हमें हमारे चारो ओर गजब की हरियाली थी कोहरे की चादर में लिपटी हुई प्रकृति पूरे समां को रूहानी सा बना रही थी ,और कभी-कभी बीच बीच में रिमझिम बारिश आती तो हम अपना छाता खोल देते और कभी-कभी हम सिर्फ बारिश में भीगते थे बारिश के मज़े लेते हुए चले जा रहे थे।चलते चलते हमे कुछ जगहों पर नीचे की मनमोहक घाटी का आनंद लेने के लिए रुक जाते और कभी-कभी सड़क के पास छोटे-छोटे झरनों पर रुक जाते जो बारिश के कारण तुरंत बन जाते हैं।
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सड़क लंबी थी और पूरे ट्रेक में हम अकेले ही थे (मुंबई के भीड़-भाड़ वाले शहर के किसी भी व्यक्ति के लिए, अपने लिए पूरी सड़क होने का यह अनुभव किसी सपने से कम न था। ) ट्रेक के दौरान कभी-कभी एक या दो बाइक सवार हमारे पास से गुजरते थे वरना दूर दूर तक एक आदमी न था इस सड़क सिर्फ़ हम दोनों के अलावा .. और मैं मस्त अपनी मस्ती में गुनगुना रहा था । अकेले है तो क्या गम है … बस इक जरा साथ हो तेरा (मेरा विश्वास करो , यह पल एक ऐसा पल था जिसे मैं हमेशा संजो कर रखूंगा अपनी यादों में )
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हम लगभग ट्रेक के अंत तक पहुँच चुके थे, पर यहाँ तक पहुँचते-२ मेरी पत्नी काफी थक गयी थी , शायद इसीलिए एक गाड़ी जब दिखी, तो उसे हाथ दिखा कर लिफ्ट के लिए अनुरोध किया, आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने कार रोक दी और हमें लिफ्ट दे दी, हालाँकि, लिफ्ट बहुत छोटी थी क्योंकि हम लगभग किले तक पहुँच ही गए थे। सच पूछो तो लिफ्ट का कुछ फ़ायदा नहीं हुआ… हां ये जरूर हो गया की जो परिवार उस कार में था उनसे हमारी दोस्ती हो गई और उनके परिवार के लड़कों में से एक ने वास्तव में मुझे पूरा गगनगढ़ किला दिखाया, जो शायद मैं इतने अच्छे से न देख पाता।
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गगनगढ़ किल्ला 1190 में शिलाहार वंश के राजा भोज द्वितीय द्वारा बनवाया गया था और अंग्रेजों ने 1844 में किले को ध्वस्त कर दिया था। मुझे बताया गया था कि किले के ऊपर से करुल घाट, भुबावड़ा घाट और आसपास की घाटी के सुंदर दृश्य देखे जा सकते हैं। किले में प्राकृतिक गुफाएँ हैं जहाँ गगनगिरी महाराज ने ध्यान किया था और बाद में इस स्थान पर गगनगिरी मठ बनाया गया है और कई भक्त इस आश्रम में आते हैं। मैं क़िले को देखने के लिए बहुत उत्सुक था।
गगनगढ़ किले कि शुरुआत में एक विशाल प्रवेश द्वार है जहाँ से गगनगढ़ किले की सीढ़ियाँ शुरू होती हैं। हमारी दाहिनी ओर कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने पर हमको एक बाइसन (Bison) की बड़ी मूर्ति दिखाई देती है और उसके ठीक सामने म्हसोबा मंदिर है।
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यहां से गगनगढ़ किले तक पहुंचने के लिए हम करीब 100 सीढ़ियां चढ़ते हैं, जो कि गगनगढ़ किले की शुरुआत में है। सीढ़ियां चढ़ते ही गेट के अंदर प्रवेश करने के बाद बायीं ओर एक प्राकृतिक गुफा है। चूंकि गगनगिरी महाराज यहां रहते थे और ध्यान करते थे, इस स्थान को मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया है, हमने गगनगिरी महाराज की मूर्ति को नमन किया और मठ से बाहर आ गए। हम जब मठ से बाहर आ रहे थे, तो जिस परिवार ने हमें लिफ्ट दी थी,उनमे एक सदस्य ने हमे पुकारते हुए कहा, प्रसाद लेकर जाना आप, पहले तो मुझे आश्चर्य हुआ कि वह क्या कहना चाह रहा था, फिर उसने हाथ हिलाया और अपना हाथ मठ के सामने वाले हॉल की ओर इशारा किया, मेरी समझ में कुछ नहीं आया था और मेरे चेहरे के भाव यह कहना कहते थे भाई आख़िर कहना क्या चाहते हो उसने फिर मुझे अपने पीछे चलने का इशारा किया , अब की बार मै आज्ञाकारी बच्चे के समान उनके आदेश का अनुसरण किया और मठ के सामने वाले हॉल में चला गया। हॉल के अंदर आते ही मुझे एहसास हुआ कि यह वह जगह है जहाँ मंदिर/मठ वाले भंडारा परोसते हैं। खाना आप कह सकते हैं सात्विक लंच जैसा होता है जिसमे चावल, सब्जी और दाल होती है । हम फर्श पर बैठ गए और यहाँ दोपहर का भोजन किया। अपना भोजन समाप्त करने के बाद हमने अपनी प्लेटें उठाईं और उन्हें स्वयं धोया और उन्हें दूसरे भक्त के लिए वापस शेल्फ पर रख दिया। सच जी कहा है किसी ने ,दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम।
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जैसे ही हम इस डाइनिंग हॉल से बाहर आ रहे थे, हमें लिफ्ट देने वाले परिवार के लड़कों में से एक ने मुझसे पूछा कि मेरा गगनबावड़ा में कैसे आना हुआ ( पता नहीं लोगो को क्यों अचरच होता है की कोई मुंबई से आ सकता है) मैंने उसे बताया कि कैसे मुझे ऑफबीट जगहों पर जाना अच्छा लगता है और फिर उनके बारे में लिखना ताकि दूसरे मेरे अनुभव का लाभ उठाकर स्वयं यात्रा कर सकते हैं।वह मेरे इस जुनून के बारे में जानकर काफी उत्साहित था और उसने मेरा मोबाइल नंबर भी ले लिया। वास्तव में, वह इतना उत्साहित था कि उसने कहा कि सर (सर मैं अपने गांव के पास कई जगहों को जानता हूं और अगर मुझे कोई नई जगह मालूम हुई तो मैं आपको कॉल करूंगा और वह जगह की जानकारी आपके साथ साझा करूँगा ” उसका उत्साह देखकर मैंने उससे कहा कि मेरे पास अगले दिन की योजना है, तुम मेरे साथ क्यों नहीं जुड़ जाते? उसने कहा कहा, मुझे आपके साथ यात्रा करना बहुत अच्छा लगेगा लेकिन दुर्भाग्य से मैं नहीं कर सकता क्योंकि मैं कोल्हापुर अपनी परीक्षा देने आया हूं इसलिए मुझे समय नहीं मिलेगा। हालांकि मैं कम से कम इतना तो कर ही सकता हूं कि मैं आपको गगनगढ़ किले की सैर करा देता हूँ । मैं तुरंत राजी हो गया।
खाना खाने के बाद मुझे अपने नए मित्र के साथ आश्रम से ऊपर जाती हुई सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ी जो, यह सीढ़ियाँ हमें मठ/आश्रम के ऊपर एक पठार पर ले जाती है। सीढ़ियाँ चढ़ते समय हमारी बायीं ओर हमें पत्थर की दीवार पर उकेरे गए विभिन्न देवताओं के चित्र दिखाई देते हैं। यह चित्र बहुत ही रंग बिरंगे से हैं।
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पठार पर पहुँचने पर हमें गगनगिरी महाराज का एक विशाल मंदिर दिखाई देता है। मंदिर के पीछे दो गढ़ हैं जिन पर तोप राखी गयी हैं, लेकिन जब मैंने इस जगह का दौरा किया तो घने बादलों के कारण दृश्यता बहुत कम थी, इसलिए बुर्ज ठीक से नहीं देख सके। यहाँ से थोड़ा आगे चलने पर हमें एक टीले के ऊपर एक शिव मंदिर दिखाई देता है।
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जब तक हम शिव मंदिर पहुंचे मेरी पत्नी ने मुझसे कहा की उसे शिव मंदिर में कुछ देर बैठने दे, और मैं मेरे मित्र के साथ ऊपर का बचा हुआ गगनगड किले का हिस्सा देख लूँ । हम दोनों शिव मंदिर से आगे बढ़ते हुए चल पड़े। कुछ मिनट चलने के बाद हम एक और सीढ़ियों पर पहुँच गए जो हमें हज़रत गब्बी पीर दरगाह तक पहुँचने के लिए चढ़नी पड़ती है।
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यह दरगाह गगनगढ़ किले के शीर्ष पर है, दरगाह के बगल में देवी विठलाई का मंदिर है और दरगाह के पीछे से दृश्य एक लुभावना अनुभव है। बादल मेरे साथ लुका-छिपी खेलते रहे तो , कभी पल भर में मैं अचरज भरे नजारे देखता था और अगले ही पल सफेद धुंधले बादलों में वह नज़ारे ढक जाते ।
मेरा विश्वास करो, दोस्तों इस घने कोहरे में, जिसने गगनगढ़ किल्ले को घेर रखा था ,जहाँ आसानी से कुछ दिख भी नहीं रहा था. अगर अकेला होता तो शायद क़िले के टॉप तक पहुंचना मेरे लिए संभव न होता। कभी-कभी एक यात्री के रूप में, आप कुछ निश्चित स्थानों पर जाने के लिए किस्मत से ही पहुँचते है , चाहे आप कुछ भी करें करे, आप अंत में होता वही है ।मैं इसे तकदीर भी कह सकता हु , शायद यही कारण था कि मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जो मैंने कहीं पढ़ी थीं जो कुछ इस प्रकार से थी।
मुश्किलें केवल बहतरीन लोगों
के हिस्से में ही आती हैं .!!!!
क्यूंकि वो लोग ही उसे बेहतरीन
तरीके से अंजाम देने की ताकत रखते हैं !!
रख हौंसला वो मंज़र भी आयेगा;
प्यासे के पास चलकर समंदर भी आयेगा; !!
थक कर ना बैठ ए मंजिल के
मुसाफ़िर;मंजिल भी मिलेगी और
जीने का मजा भी आयेगा !!!
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खैर, अब पीछे मुड़ने का समय आ गया था, इसलिए हम गगनगढ़ क़िले की चोटी से प्रवेश द्वार तक उतरने लगे। हमनें अपना ट्रेक वापस बस स्टेशन के लिए शुरू कर दिया था. इस बार, जब हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे, सुबह का कोहरा बहुत साफ हो गया था और हम भाग्यशाली थे कि हम घाटी और हमारे चारों ओर के पहाड़ों के कई आश्चर्यजनक दृश्यों को और अधिक स्पष्ट रूप से देख पा रहे थे।
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दोपहर के 3 बज रहे थे, जब हम बेस पर पहुँचे जहाँ से हमने सुबह ट्रेक शुरू किया था। आज किस्मत हमारे साथ लग रही थी क्योंकि जब हम बस स्टैंड पहुंचे तो डिपो पर कोल्हापुर की बस खड़ी थी। हम जल्दी से बस में चढ़ गए और कुछ ही समय में हमारी बस कोल्हापुर की ओर दौड़ पड़ी।
अगर हम कोल्हापुर ठीक समय से पहुँच गए , यानी अगर अभी भी दिन का उजाला बाकि रहा तो हमने तय किया कि हम आज ही महालक्ष्मी मंदिर के दर्शन करेंगे।
दिन 1 के भाग 2 के लिए बने रहें, यह जानने के लिए कि क्या हम आज महालक्ष्मी मंदिर देख पाए थे या हमे कोल्हापुर पहुंचने में देर हो गई थी।
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